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परमात्मा की सूक्ष्म प्रेरणा और प्रकृति का पूर्व निर्धारित प्रबंधन है प्रकृति का पंचांग
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ज्योतिषीय पंचांग में तिथि और नक्षत्र तो प्रकृति के पंचांग में विवेक ही तय करती है वर्तमान और भविष्य के जीवन की दिशा और दशा
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ईश्वर के दो निवास स्थान हैं पहला बैकुंठ में और दूसरा नम्र और कृतज्ञ हृदय में…
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मनुष्य के जीवन का उत्थान और पतन उसके अंदर के भाव से ही तय होता है
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परमात्मा के प्रबंधन में जिस भाव या वस्तु का दुरुपयोग होता है, उसकी लंबी आयु नहीं होती है
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हे मानव! विवेक की साक्षी में सोचा तो अर्थ है, नहीं सोचा तो व्यर्थ है, कभी नहीं सोचा तो अनर्थ है, अन्यथा यह मानव जीवन ही व्यर्थ है।
दार्शनिक शंभू (9934234304)
समाचार विचार/पटना/बेगूसराय: भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पांच अंगों की दैनिक जानकारी पंचांग में दी जाती है। ये अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हैं। हमारा भारतीय समाज इन्हीं को आधार बनाकर शुभ अशुभ मुहूर्तों के अनुसार वर्तमान, भविष्य और संभावना से संबंधित निर्धारित कार्य व्यापार को संपन्न करता है। इनके द्वारा अपने वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं की तलाश करता है। यह तो ज्योतिष शास्त्र के द्वारा निर्मित पंचांग हैं, जिनकी सर्व स्वीकार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन आपने कभी सोचा है कि परमात्मा के प्रबंधन में प्रकृति का पंचांग क्या है? तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की तरह भी प्रकृति ने भी पंचांग की रचना की है, जिसे खुली आंखों से देखना लगभग असम्भव है। इसे सूक्ष्म आंखों और संवेदनशील भाव से ही देखा जा सकता है। प्रकृति के पंचांग का मूल आधार दया, करुणा, क्षमा, सहनशीलता, त्याग और धैर्य है। आज मनुष्य प्रकृति के पंचांग के इन अंगों को अपने आचरण और कार्य व्यवहार में नहीं उतार पा रहा है, इसलिए चहुंओर वेदना, विषाद और मानवीय मूल्यों का क्षरण दिख रहा है। ज्योतिषीय पंचांग में शिद्दत से अपने वर्तमान के अनुरूप कार्य योजना और भविष्य की संभावना देखने वाला मनुष्य अगर प्रकृति के पंचांग का अनुसरण करना शुरू कर दे तो सही मायने में उसका जीवन धन्य हो जाएगा। परमात्मा अपने प्रकृति प्रबंधन में मनुष्य के आंतरिक भाव और प्रवृति से ही उसके जीवन की दिशा और दशा तय करते हैं और कहा भी गया है कि मनुष्य के उत्थान और पतन का मार्ग उसके आंतरिक भाव से ही तय होता है।
प्रकृति का पंचांग है परमात्मा की सूक्ष्म प्रेरणा और प्रकृति का पूर्व निर्धारित प्रबंधन
सोच, स्वास्थ्य और संबंध के संतुलन में परमात्मा मानव की सोच में सूक्ष्म रूप से प्रेरणा के रूप में हमेशा विद्यमान रहते हैं। इनके माध्यम से कार्य का नहीं बल्कि मनुष्य के जीवन के उत्थान पतन का मार्ग प्रशस्त होता है और जीवन की दिशा और दशा तय होती है। प्रकृति मनुष्य के कर्म और क्रियाकलाप का निर्धारण कर पूर्व जन्म के पुण्य और पाप से अर्जित प्रारब्ध तय कर उसे नाशवान शरीर के रूप में इस भूलोक पर भेजती है और वह अपनी बुद्धि, विवेक से पद, पहचान और प्रतिष्ठा का निर्माण भले ही अपनी काबिलियत से करता है लेकिन यह उसकी काबिलियत नहीं बल्कि प्रकृति की सूक्ष्म प्रेरणा और परमात्मा के पूर्व निर्धारित प्रबन्धन की कृपा से तय होता है। यही सूक्ष्म प्रेरणा और पूर्व निर्धारित प्रबंधन ही प्रकृति का पंचांग है, जिसके अनुसार अपनी प्रवृति को ढालने से मानव जीवन को धन्य बनाया जा सकता है। परमात्मा प्रत्येक मनुष्य की आत्मा में क्षण प्रतिक्षण प्रेरणा के रूप में विद्यमान रहकर उसे सही और गलत भावों और कृत्यों का एहसास दिलाते रहते हैं। प्रकृति के पंचांग के निष्पक्ष अवलोकन से जीवन मूल्य की समझ उत्पन्न होती है। जिनको जीवन मूल्य की समझ है उनके लिए, रिश्ते-नाते, रोजगार, व्यवसाय और नौकरी में बिताया गया एक पल बेशकीमती है जिसके उपयोग करने के तरीके व्यक्ति के अंदर के भाव से तय होते हैं और यह भाव प्रकृति की असीम प्रेरणा से ही संभव हो पाती है। यह भाव व्यक्ति की काबिलियत नहीं बल्कि परमपिता परमेश्वर की कृपा और प्रकृति की असीम प्रेरणा है, जिसे प्रकृति का पंचांग कहा जाता है।
प्रकृति के पंचांग में विवेक ही तय करती है वर्तमान और भविष्य की जीवन दशा
जिस तरह ज्योतिषीय पंचांग में हम किसी कालखंड की ग्रह गोचर तिथि वार और दशा देखते हैं ठीक उसी प्रकार प्रकृति के पंचांग में विवेक के आईने, आध्यात्मिक और संवेदनशील भाव में हमें वर्तमान जीवन और भविष्य की जीवन दशा दिख जाती है। लोभ, मोह, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध और षड्यंत्र जैसी आसुरी प्रवृति का मनुष्य स्वाभाविक रूप से विवेकहीन होता है इसलिए उसकी अधोगति स्पष्ट रूप से दिखती है जबकि दया, क्षमा, त्याग, करुणा, ममता, सहनशीलता, परोपकार, धैर्य और दैनिक व्यवहार में सरलता, सहजता और क्षमा का भाव जैसी दैवीय प्रवृति का मनुष्य स्वाभाविक रूप से विवेकवान होता है इसलिए परमात्मा और प्रकृति के पंचांग में उसकी उन्नति स्पष्ट रूप से दिखती है। मनुष्य को छोड़कर इस नश्वर संसार में किसी भी जीव में विवेक नहीं है इसलिए मनुष्य धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। सिर्फ अपनी संतानों पर अपनत्व, प्रेम, ममत्व और करुणा लुटाना अति संकीर्णता है। विवेकवान मनुष्य अपनी करुणा और ममता की छाँव का इतना विस्तार करता है कि अन्य जीव को भी शांति और सुकून का एहसास होता है। विवेक परमात्मा का दिया हुआ एक फिल्टर की तरह होता है जो तमाम दुर्गुणों और अपरिष्कृत ज्ञान को शुद्ध कर मनुष्य को मानवीय गुणों का धनी बनाता है लेकिन इसके बावजूद भी वह अगर नहीं संभलता है, गढ्ढा दिखने के बावजूद अगर वह उसमें गिरने को आतुर रहता है तो उसके सर्वनाश को कोई रोक नहीं सकता है। जीवन दर्शन: प्रकृति का पंचांग
विवेक की साक्षी में सोचा तो अर्थ है, नहीं सोचा तो व्यर्थ है, कभी नहीं सोचा तो अनर्थ है, अन्यथा हे मानव! यह मानव जीवन ही व्यर्थ है”
इतनी योनियों में भटकने के उपरांत मानव योनि में जन्म लेना किसी वरदान से कम नहीं है। इसलिए हमें सदैव सकारात्मक चिंतन करते रहना चाहिए क्योंकि इस संसार में दोबारा आने का मौका किसी को नहीं मिलता है। इसलिए हमें प्रकृति के पंचांग के आईने में खुद को देखने की जरूरत है ताकि हमारे जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सके। प्रकृति के प्रबंधन में मौसम के अनुरूप ही फल और फूल हमें स्वाद और सुगंध प्रदान करते हैं ठीक वैसे ही अंतरात्मा में मौजूद प्रवृतियों का भी मौसम होता है जो दो ध्रुवों में बंटा होता है। एक नकारात्मक ध्रुव और दूसरा सकारात्मक ध्रुव। नकारात्मक ध्रुव के मौसम में क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, लोभ, मोह और षड्यंत्र जैसी विध्वंसक प्रवृतियां पलती रहती है, जिससे मनुष्य स्वयं को स्वतः ऊर्जाहीन, अशांत और असहज महसूस करने लगता है। ऐसी प्रवृति से जीवन में नाश और सर्वनाश का माहौल बन जाता है वहीं सकारात्मक ध्रुव के मौसम में दया, करुणा, ममता, क्षमा और त्याग जैसी सृजनात्मक प्रवृतियां पुष्वित पल्लवित होकर अवसर को सुअवसर में बदलने का मार्ग प्रशस्त करती रहती है। इस मौसम में मनुष्य शांत, सरल सहज और खुद को स्वतः ऊर्जावान महसूस करने लगता है। इन्हीं दो ध्रुवों में सन्निहित आंतरिक भाव को प्रकृति के पंचांग में देखकर, खुद को मन के तराजू पर तौलकर हर व्यक्ति आत्म अवलोकन कर सकता है और भलीभांति समझ सकता है कि वह अपने जीवन में किस रास्ते पर गतिमान है। वह सहज ही समझ सकता है कि उसका जीवन सृजन की ओर गतिमान है या विध्वंस के मार्ग पर अग्रसर है। ज्योतिषीय पंचांग की एक खास सीमा होती है लेकिन प्रकृति का पंचांग मनुष्य को विवेक की साक्षी में इहलौलिक और पारलौकिक अस्तित्व तक के भविष्य की दिशा और दशा का निर्धारण कर देती है। इसलिए मैं बार बार यह पंक्ति दोहराता हूं कि ” विवेक की साक्षी में सोचा तो अर्थ है, नहीं सोचा तो व्यर्थ है, कभी नहीं सोचा तो अनर्थ है, अन्यथा हे मानव! यह मानव जीवन ही व्यर्थ है”।
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Author: समाचार विचार
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