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संस्कृति: अंग्रेजों के दमन के विरोध में बेगूसराय में हुई थी बुढ़वा मंगल होली की शुरुआत

  • मिथिला के वृंदावन गौरा गांव में परंपरागत होली के बाद चढ़ जाता है बुढ़वा मंगल होली का खुमार

  • धार्मिक ग्रंथ शिवपुराण में भी है बुढ़वा होली का जिक्र

संस्कृति
समाचार विचार/अशोक कुमार ठाकुर/तेघड़ा/बेगूसराय: सदियों से मिथिला क्षेत्र की संस्कृति देवों की संस्कृति मानी गई है। इस क्षेत्र का खान-पान, रीति- रिवाज के साथ लोक संस्कृति भी विविधताओं से भरा है। यही वजह है कि बिहार को विविधताओं वाला राज्य कहा जाता है। इतनी विविधता ही यहां कोस-कोस पर वाणी और चार कोस पर पानी वाले कहावत को चरितार्थ करता है। यहां मनाए जाने वाले त्योहार में भी विविधता दिखती है। बिहार में रंग के त्योहार होली के उमंग के भी कई रंग हैं। मिथिलांचल क्षेत्र बेगूसराय अंतर्गत तेघड़ा प्रखंड के गौरा एक में सदियों से चली आ रही पुरानी परंपरा ‘बुढ़वा होली’ जिसे बुढ़वा मंगल होली भी कहा जाता है, बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष होली के बाद मंगल के दिन अभिजीत मुहूर्त में मां भगवती मंदिर के प्रांगण में मंदिर प्रबंधन समिति एवं ग्रामीणों के द्वारा परंपरागत तरीके से बुढ़वा मंगल होली मनाई जाती है। इस साल यह आयोजन 2 मार्च को भव्य तरीके से मनाया गया। इस अवसर पर श्रद्धालुओं ने भगवान भोलेनाथ की विशेष पूजा अर्चना कर उनका श्रृंगार किया। भोलेनाथ के साथ ही अन्य देवी देवताओं पर रंग गुलाल चढ़ाने के बाद श्रद्धालुओं ने एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर बधाई दी। मंदिर परिसर में पारंपरिक होली गीत गाए गए। लोगों ने होली के गीत के धुन और जोगीरा का आनंद उठाया। गांव के हर घरों में होली की तरह इस दिन भी मिठाई पकवान बनाए गए। पूरे गांव में होली का उत्साह और उमंग बना रहा।

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अंग्रेजों के दमन के विरोध में बेगूसराय में हुई थी बुढ़वा मंगल होली की शुरुआत
वैसे तो होली को युवाओं का त्योहार कहा गया है। उमंग और हुड़दंग वाले इस त्योहार को युवाओं से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन बुढ़वा मंगल होली में समाज के बुजुर्गों को सम्मान देने की रिवायत है। होली के अगले प्रथम मंगल को बुढ़वा मंगल होली मनाने का यहां रिवाज है। यह परंपरा यहां अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है। बुढ़वा मंगल होली को लेकर शोभा यात्रा भी निकाली गई। यह शोभायात्रा मंदिर परिसर से ढ़ोल, डफली, झाल, मृदंग के साथ निकली, जो होली गीत गाते हुए गांव के विभिन्न मोहल्लों का भ्रमण करते हुए मंदिर परिसर पहुंचा। स्थानीय कलाकारों द्वारा पारंपरिक होली गीत गाकर लोगों को आनंदित किया गया। स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि सैकड़ो वर्ष पूर्व जब अंग्रेजों का हुकूमत था, उस समय गौरा का सत्य प्रकाश पुस्तकालय आजादी के दीवानों का केंद्र बिंदु हुआ करता था। वहां से आजादी की लड़ाई की रूपरेखा तैयार होती थी। बाद में चलकर वह पुस्तकालय मध्य विद्यालय गौरा के खपरैलनूमां भवन में पूर्व प्रधानाध्यापक स्वर्गीय नंदकिशोर राय, योगेश्वर ठाकुर, जनार्दन चौधरी, रामयतन पोद्दार आदि मित्र मंडली के सहयोग से उसे जीवंत रखा गया लेकिन वर्तमान समय में वह बुद्धिजीवियों का विरासत और इतिहास का धरोहर आज मिनी पंजाब उर्फ गौरा कहे जाने वाले समृद्ध गांव का वह विरासत विलुप्त होने की कगार पर है। ग्रामीणों ने बताया कि होली के अवसर पर जुटे आजादी के दीवानों की होली मनाने की सूचना पर अंग्रेजी हुकुमरानों ने यहां जमकर कहर बरपाया था और होली का रंग फीका पड़ा और पूरे गांव में मातम छा गया। फिर पूरे गांव में बुजुर्गों ने निर्णय लिया कि अंग्रेजों के दमन के विरोध में हम होली की शुरुआत अगले मंगल को फिर करेंगे। इसके बाद बड़े ही धूमधाम से पूरे गांव में होली मनाई गई। तब से यह परंपरागत होली आजादी के दीवानों और अपने पूर्वजों को याद करने एवं उनके सम्मान के साथ गांव के बुजुर्गो के सम्मान से जोड़कर  मनाए जाने का परंपरा बन गया। राष्ट्रकवि दिनकर ने भी कहा था कि गौरा मिथिला का वृंदावन है।

धर्मग्रंथ शिवपुराण में भी है बुढ़वा होली का जिक्र
बेगूसराय के गौरा गांव में भले ही बुढ़वा होली की शुरुआत को अंग्रेजी हुकूमत से जोड़कर देखा जा रहा हो, लेकिन इसकी प्रासंगिकता शिव पुराण से भी मेल खाती है। कहा जाता है कि आदिकाल में होली के दिन भगवान विष्णु-महालक्ष्मी होली खेल रहे थे। तब नारद मुनि ने इसकी चर्चा भगवान शिव से की थी। भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण वीरभद्र को बताया था कि मंगल का दिन हो और अभिजीत नक्षत्र हो, उस दिन वह होली खेलते हैं। पंचागों में भी ‘बुढ़वा मंगल’ का जिक्र मिलता है।

🎯मगध क्षेत्र में भी सदियों से चली आ रही है बुढ़वा होली की परंपरा

 

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